Monday, July 13, 2009

अकेली

अकेली रात थी, अकेला था समां,
अकेले मेरे जज्बात थे, अकेला था वो लम्हा,
अकेला सा सन्नाटा था, अकेला था वो वक्त थमा,
अकेली बैठी, अपनी अकेली दुनीया को रही थी मै सजा,
अचानक एक आहट उस अकेलेपन को तोड़ गयी,
और मेरे अकेले दिल को एक नयी दुनिया के और मोड़ गयी,
वो दुनिया जहाँ लोग तो थे,
पर सच्चा साथ न था,
होटों पर तो थी सबके हँसी,
पर दिल में कोई जज्बात ना था,
बातें तो थी सबकी मीठी,
पर आँखों मे कोई भाव ना था,
सब जी रहे थे साथ, पर वो साथ एक झूठ एहसास था,
कोशिश की बहुत की उस दुनीया की हो जाऊ,
इन सब लोगो की तरह,
मुखोटा पहन कर जी पाऊ,
कुछ दिन तो लगी दुनीया बहुत ही अच्छी,
पर फिर ना जाने इन झूठे चेहरों से लगी,
मुझे अपनी अकेली दुनीया ही सच्ची,
जी रही थी शायद अकेले ही अपने लिए,
पर दिल में कोई दगा ना था,
अकेली थी मैं , पर साथ कोई दग्गाबाज अपना ना था,
मेरी अकेली मुस्कान, अकेली सुबह, अकेली रात, अकेले जज्बात, ही मेरी पहचान थे,
मेरे अकेले अरमान इस अजीब दुनीया से अनजान थे,
लौट जाऊ अपनी अकेली दुनीया में ये मेरा ख्वाब है,
पर बदल चुकी हूँ मैं, जो मेरा अपनापन ना मेरे साथ है.

2 comments:

PULKIT said...

very deep and thoughtful!
keep writing!!

Betuke Khyal said...

Duniya itni bhi sangdil nahi hai neha.. & good that you enjoy your company... bahut kam hi log khud se imaandari rakh pate hain..

keep writing.. I love reading ur stuff.